भटका हुआ मानव जिस समय आत्मरत्न की गंभीरता को अनुभव करने की शुरुआत करता है उसी क्षण वह वाल्या से महर्षि वाल्मिकी बन जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से नाहत नाद का भावबुद्धि पलटकर अनाहत नाद में परिवर्तन होता है। महाराष्ट के बहुत से संत योगीजनों का आध्यात्मिक परिवर्तन आसक्त भावबुद्धि पलटने की वजह से ही हुआ है।
आध्यात्मिक गर्भधारणा कैसे होती है?
अन्तर्वासना है तो स्थूल देह जन्म होगा ही.........! यह जन्म होने से पहले कुछ विशिष्ट एवं आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में से अर्भक को गुजरना पड़ता है। इस संबंध में चुनिंदा बातें (सूचनाएं ) यहाँ देना चाहता हूँ। अपने घर में नए बालक के जन्म होने का संबंध अपने पितरों से, कुलदेवता से, और संबंधित माता पिता के कर्मो से जुड़ा हुआ होता है। सूक्ष्म गर्भधारणा होने से पहले स्थूल शरीर की संरचना हॄदयधारणा तक अंदाजन 45 दिनों में शुरू हो जाती है। यह हृदय संरचना अगले 45 दिन निर्विघ्नता से आत्मसंक्रमित होने के लिये जीवपिंड का निरीक्षण करती है। इस तरह से औसतन 3 महीने अर्भक के स्थूल शरीर में सूक्ष्म पुरुषप्रकृति अनुकूलता उत्पन्न होनेके बाद संबंधित आत्मा उस महिला के हंस: सोsहं इस अजपाजाप अनुग्रहद्वारा गर्भ में प्रवेश करता है। इस सूक्ष्म क्रिया में संबंधित महिला को अजपाजाप एवं अन्य आत्मप्रवधान की जरा सी भी अनुभूति नहीं होती।
एक बार आत्मतत्व गर्भधारणा में प्रविष्ट होने के बाद उस अर्भक की मानसिक, शारीरिक एवं चैतन्यमय आध्यात्मिक विकास पूरा होने लगता है। चैतन्यमय प्रवाह की संवेदना से अर्भक का रूपांतर आत्मजीव शरीर में होकर औसतन 9 महीने 9 दिनोंके बाद जन्म होता है।। आत्मरत्न एक रहस्यमय परमतत्व है जो सूक्ष्म शरीर को मिला हुआ एक गुप्त उपहार है। इस उपहार की जबतक गंभीरता से पहचान नहीं होती तब तक इसी तरह नरक वासना में भटकते रहेंगे इस में कोई शक नहीं।
उपरोक्त आध्यात्मिक गर्भधारणा में सबसे बड़ी भूमिका आत्मशक्ति की है ऐसा हमें महसूस होता है। यदि आत्मा हमारी मानसिक, शारीरिक,एवं बौद्धिक स्तरपर अमृतमय योगदान कर सकती है तो देहबुद्धि के पार आत्मरत्न से हमने जिस कुल में, घर में, और गुरुसम्प्रदाय में जन्म लिया है उस प्रणाली का आत्मोद्धार भी हम कर सकते है। यह भूलना नहीं चाहिए। आत्मरत्न कि अंतरिक परिभाषा को गहनता से समझा जाना चाहिए। उसके द्वारा हम आत्मनिर्भर होकर भगवत्मय अंतःकरण से जुड़ सकते हैं।
इस ब्रम्हांड का सबसे जटिल साधन यानी मानव शरीर.......! इस स्थूल मानवी शरीर के सूक्ष्म तीन प्रकार अंदर ही अंदर या एक के अंदर एक इस तरह से समाए हुए हैं।
उनकी जानकारी इस तरह है।
प्राथमिक देह (आवश्यक शरीर) - स्थूल शरीर (प्रकृति - नाश होने वाला,अस्थायी
- 1. अंतरिक देह - सूक्ष्म शरीर ( प्रकृति - अविनाशी )
- 2. अतिअंतरिक देह - कारण शरीर ( प्रकृति - उत्कट अविनाशी )
- 3. सत्यअंतरिक देह - वैश्विक शरीर ( प्रकृति-महोत्कट अविनाशी)
प्राथमिक देह
स्थूल शरीर यानी षड रिपुओं के अचल आवास की जगह.....! इस स्थल शरीरी में अनेकों प्रकार की मित्रता एवं शत्रुता समाई हुई है। शरीर का जन्म होते ही ' देवी सतवाई ' आती हैं और जन्म लिए हुए शरीर का मृत्यु के बाद होने वाला पंचनामा पहले से ही माथे पर लिख कर चली जाती है। इस दैवीय क्रिया की वजह से संबंधित कली, माया, एवं प्रेत योनियों का प्रहार शरीर पर शुरू होता है और वक्त के चलते शरीर आध्यात्मिक जीवन से हतोत्साहित (अलग) होकर भोगी जीवन व्यतीत करने की भरसक कोशिश करता रहता है।
1. अंतरिक देह अथवा सूक्ष्म शरीर
स्थूल शरीर के ऊपर उठकर यानी हमारे जीवन के तीन घटों (कलशों) में से 1. पाप घट (पाप कलश), 2. पुण्य घट (पुण्य कलश), 3. नाम घट (नाम कलश) इनमें से नाम कलश के दम पर रसातल के गटर में भोगी जीवन जीने के लिए लिप्त रहनेवाले दुर्गन्धयुक्त स्थूल शरीर में से उठकर आत्मतत्व शिवपरायन जीव यानी अनुग्रहित सूक्ष्म शरीर। दूसरे सूक्ष्म शरीर जो अतृप्त आत्माएं हैं वह लिंग शरीर के बिना अपना उर्वरीय योनिक्रम जीते रहते हैं। उन सुक्ष्म शरीरों की अर्थपूर्ण आध्यात्मिक महानता की गिनती नहीं की जाती।
2. अतिअंतरिक देह अथवा कारण शरीर
सूक्ष्म शरीर का जीवात्मा से शिव परमात्मा तक का निरंतर अभंग प्रवास उस सूक्ष्म शरीर को कारण शरीर अभिव्यक्ति में परिक्रमण करवाता है। सद्गुरु समुदाय सभी तरह से कारण शरीर का अवलोकन करके संबंधित शिष्यों को मार्गदर्शन करतें है। योग, ध्यान एवं अंतर्मुख अर्थयुक्त नामस्मरण के ही माध्यम से संबंधित जीव कारण शरीर के अंदर की आत्मशक्तियों से संपर्क कर सकता है। इस तत्व में दूसरी तरह का पठन पढ़ते रहना व्यर्थ है।
3. सत्यअंतरिक देह अथवा वैश्विक शरीर
कारण शरीर की अभिव्यक्ति एकमात्र वैश्विक शरीर के साथ ही विचरण कर सकती है। इस वैश्विक शरीर में (परम शरीर में) श्री रूप समाएं हुए हैं उनमें भगवान श्री दत्तात्रेय स्वामी महाराज, देव पंचायतन एवं दूसरी दैवीय शक्तिओं का समावेश होता है। बहुत ही गहन इस देहतत्वों का सम्पूर्ण सखोल विश्लेषण यहाँ लिखना संभव नहीं है। जिन साधकों को सत्वकारण जानने की जिज्ञासा है वहीं संबंधित लेखन के प्रति प्रतिक्रियाएँ दें।
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
( Dattaprabodhinee Author )
भ्रमणध्वनी : +91 9619011227
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