नवनाथ भक्तीसार पारायण कैसे करे ? जानिऐ भक्तीसारका ब्रम्हाण्डीय सामर्थ्य विश्लेषण.


अगर  एक भक्त की भक्ति ही निःसीम होती है तो उसे  भगवान के दर्शन प्राप्त होते ही है। यदि आप श्री गुरुचरित्र, श्री ज्ञानेश्वरी, श्री दासबोध, श्री दुर्गा सप्तशती आदि नाथ महाराज के धार्मिक ग्रंथों के साथ श्री नवनाथ ग्रंथ का अंतःकरण से पाठ करते  हैं, तो नाथ महाराज हमारे संकट के समाधान कर के चमत्कारिक  और अद्भुत अनुभवों की पुष्टि कराते हैं।

1819 में, कविराज धुंडिसुत मालू नरहरी जी ने 'श्री नवनाथ भक्तिसार' यह ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथराज में 40 अध्याय और 7600 दोहे  हैं। इस ग्रंथ  के किसी भी अध्याय को पढ़ने के बाद साधक को उसका क्या सही फलित है यह 40 वें अध्याय में कविराजजी ने लिख के रखा है । मच्छिंद्रनाथ, गोरखनाथ, जालंधरनाथ, कनीफनाथ, चर्पटीनाथ, अडबंगनाथ, भर्तरीनाथ, रेवणनाथ और चौरंगीनाथ  ऐसे नव नारायणों का नवनाथ रूप में भक्तिसार ग्रंथ है।   निःसीम भक्ती, तपश्चर्या, धर्माचरण, सद्गुरुनिष्ठा, वैराग्य, सन्मार्ग, भावसामर्थ्य व दत्त चरितरज  आदि गुण अगर हों तो आम आदमी को भी भगवंत के दर्शन प्राप्त हो सकते है इस आधार पर अलख  प्रमाणपत्र नाथ महाराज ने समाज को दिलाया है।




ग्रंथ क्या है? नाथ ग्रंथ और ब्रम्ह ग्रंथी के बीच क्या संबंध है?

अधिकांश साधक परायण करते हैं, सभी गतिविधियाँ यथासंभव सरल होने का प्रयास भी करते हैं। लेकिन हम पारायण  करते समय सूक्ष्म बातों का अध्ययन करना भूल जाते हैं।  अर्थहीन वाचन से ब्रह्म अनुभव युक्त आध्यात्मिक अनुभव नहीं  प्राप्त होता है। केवल मानसिक संतुष्टि मिलती है जो आत्मप्रचिति के लिए पर्याप्त नहीं। पारायण, ग्रंथ, ग्रंथि,  अंतर्मुखता,  चित्तायाम,  सूक्ष्मर्दृष्टि और मतीतार्थ यह  सभी तत्व पारायण काल में एकदूसरे से जुड़े हुए होते है.  जब तक आप सामूहिक स्तर पर इन तत्वों का अनुभव नहीं होता है तबतक कोई भी वाचन उपयुक्त नहीं है। ग्रंथ आचरण पर चयनात्मक जानकारी प्रदान करते है ताकि आपके जीवन के अनमोल क्षण सिर्फ अज्ञानता के आधार पर बिखर न जाएं।

ग्रंथ यह शब्द ग + रं + अथ इन तत्वों का सामूहिकीकरण है।  ' ग्रंथ ’ इस शब्दब्रम्ह  में ग  का यानी आदिपुज्यम गणाध्यक्षम, अर्थात श्री गणपति, रं बीज यह शिव अथवा रुद्रके  मातृकाशक्ति बीज और अथ यह प्रकृति की अभिव्यक्ति है। हम अपनी ज़बान उठाकर आसानी से कोई शब्द बोलते है लेकिन उस का मतीतार्थ समझने का प्रयास नहीं करते है। यही तो भारतीय संस्कृति का दुर्भाग्य है। ' ग्रंथ ' ब्रह्मशब्ध के मतीतार्थ को ध्यान में रखते हुए, ग्रंथ यानी शिवचरण या सदगुरु चरण ऐसा अर्थ  समझकर मन में  पुख्ता करके रखें। इसलिए, महात्माओं ने अतीत में " ग्रंथ ही  गुरु "  ऐसी आत्मबोधक तत्वनियती को समझाया है।

ग्रंथ और ग्रंथि यह बहुत गहरा तत्व निरूपण है। संक्षिप्त में तथ्य को लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।   ग्रंथ के उपरोक्त मतीतार्थ के अनुसार ग्रंथि के अस्तित्व को ग्रंथ पारायण करनेवाले साधक के शरीर में गिनती की जाती है।  इसलिए क्रमशः ब्रम्हग्रंथि,  विष्णुग्रंथि और रुद्रग्रन्थि आत्मवर्णीत हैं।  ग्रंथ पारायण करते समय दो चरणों में पठन किया जाता है वो निम्नलिखित है।


  • 1। भौतिक कामना (शारीरिक इच्छाओं) के लिए पारायण अनुष्ठान विधी
  • 2। आध्यात्मिक प्रगती के लिए पारायण विधी

1। भौतिक कामना (शारिरिक इच्छाओं) के लिए पारायण अनुष्ठान विधि

जिन साधकों को  भौतिक (शारीरिक )  समस्याएँ है, उनको पारायण पाठ करते समय वैखरी वाणी का उपयोग करना पड़ता है। वैखरी वाणी यानी स्थूल वाणी (सकल आवाज ) है जिसे हर कोई आसानी से सुन सकता है। यही कारण है कि हमारे  परिसर और हमारे घरों में  नकारत्मक स्पंदनों  को समाप्त किया जाता हैं। अपेक्षित फलप्राप्ति की दृष्टि से, आपको संबंधित परायण सेवा करनी ही होगी। यह सब पूरीतरह से संबंधित नकारात्मक ऊर्जा की तीव्रता पर निर्भर करता है। अन्य अनुष्ठान विधि सभी समान हैं।  उसमें कोई विशेष फेरबदल (संशोधन) नहीं है।


2। आध्यात्मिक प्रगति के लिए पारायण अनुष्ठान विधि

नाथों ने इस आत्महेतुपर विशेष बल दिया है। जिन साधकों को सद्गुरु अनुग्रह की प्राप्ति,   पाप क्लेश का नाश, अज्ञान के अंधकार का नाश करना , दूरदृष्टि, ब्रम्हज्ञान,  सद्गुरु तत्व का ज्ञान,  लोक परलोक के पारलौकिक अस्तित्व का अनुभव व भ्रमण, जीवन-मुक्ति अवस्था की प्राप्ति, शिवजीव का एक होना, प्रकृति पुरुष का ब्रम्हाण्डियकरण होना,  देहबुद्धि से विदेही आत्मबुद्धि में मार्गक्रमण करना और  भूत, वर्तमान और भविष्य ज्ञान की प्राप्ति होना इस के लिए अंतर्मुख पारायण करना पड़ता है।

मूलरूप से  पारायण यह शब्द 'परायण' इस शब्द का अपभ्रंश है।  परायण करना यानी मूल रूप से आध्यात्मिक प्रगति के लिए अंतर्मुख होना यह है।  ग्रंथ तत्व काअन्तर्मुखीकरण कर के वह आत्मसंयमद्वारा पचाकर आचरण में लाने से ग्रंथिसमुह का ज्ञान हमें सद्गुरु कराके देते है। इसके लिए, सभी दत्तभक्तों को अपने चरित्र को पवित्र और आचरण को अच्छा रखना चाहिए।


नाथ शब्द का क्या अर्थ है?

नाथ शब्द का प्रसार नाथृ धातु से हुआ है।   नाथृ यानी तप में से तापों की समाप्ति करके दैविसनिध्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेना है। अतः  जिससे ऐश्वर्य, आशीर्वाद और कल्याण प्राप्त होता है वह नाथा है। नाथ शब्द का आम अर्थ स्वामी, प्रभु, मालिक, सद्गुरु महाराज यह होता है। इसी तरह  न + अथ अर्थात नहीं यानी जिसके परे कुछ भी नहीं है। कोई भी तत्व नहीं है। यदि कोई भी इन पुरुषप्रकृति और पिंडब्रम्हाण्ड से परे है,  तो वें नाथ हैं।

मुझे बहुत से साधक आर्थिक समस्याओं के लिए कुछ निश्चित रूप के साधन अथवा उपासना है क्या?  यह पूछते रहते हैं। उसके लिए  नवनाथ ग्रंथ में से दूसरा अध्याय आर्थिक चिंता दूर करने के लिए पढ़ना चाहिए। जिन लोगों को वित्तीय समस्याएं हैं, चाहे वें महिला हों या पुरुष, उन्होंने इस अध्याय को प्रतिदिन भक्तिभाव  के साथ कमसे कम 6 महीने तक पढ़ना चाहिए। मासिक धर्म के दौरन महिलाओं को कुछ भी नहीं करना चाहिए। केवल मानसिक नाम जाप को चालू रखा जाना चाहिए। संतान का विवाह जल्द से जल्द तय होने के लिए नवनाथ ग्रंथ में से 28 वे अध्याय  को पढ़ें। सभी नियमों और आचरण को ध्यान में रखते हुए ही कार्रवाई की जानी चाहिए।

संपुर्ण ग्रंथ पारायण आध्यात्मिक प्रगतीसाठी करण्याची तीव्र ईच्छा असल्यास साधकांनी निःसंकोच संपर्क करावेत. सर्व माहीती येथे प्रकाशित करणे शक्य नाही.

संपूर्ण ग्रंथ पारायण आध्यात्मिक प्रगति के लिए करने की तीव्र इच्छा होने पर साधक निःसंकोच संपर्क कर सकते हैं। सभी जानकारी यहां प्रकाशित करना संभव नहीं है।

संपर्क : श्री. कुलदीप निकम 
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भ्रमणध्वनी : +91 9619011227 
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