
महाकाल पुरुष की शक्ति महाकाली यह लिखा जा चुका है कि सर्वप्रथम जब कुछ न था, उस समय केवल अनुपाख्य तम था।। वह अनुपाख्यतम--अलक्षण, अप्रज्ञात, अप्रतर्क्य, अनिर्देश्य तत्व है।। यही तत्व महाकाल है और उसकी शक्ति महाकाली है।। यही दस महाविद्याओं की पहली विद्या का रूप है। सृष्टि से पहले इसी महाकाली का--प्रथम महाविद्या का साम्राज्य रहता है।
आगमशास्त्र में इसे ही प्रथम आद्या कहा गया है। रात्रि, प्रलय का प्रतीक है। रात्रि का अर्धरात्रि--घोरतम महानिशा ही महाकाली है।। रात के अन्धकार को ऋषियों ने ८४ भागों में विभक्त किया है। ये विभाग ही महाकाली के ८४ अवान्तर विभाग हैं। महाकाली के ८४ स्वरूप एक-दूसरे से भिन्न हैं। रात्रि के इन्हीं स्वरूपों को समझने के लिए ऋषियों ने निदान विद्या के आधार पर मूर्तियों की कल्पना की है। निदान का दूसरा नाम प्रतीक है।
यह निदान विद्या--प्रतीक विद्या अब तन्त्र ग्रन्थों में उल्लिखित मात्र मिलती है। इस विद्या का प्रायः लोप हो गया है। महाकाली की सभी शक्तियाँ अचिन्त्य हैं, निर्गुण हैं, प्रत्यक्ष से परे हैं, इसलिए उनके स्वरूप - ज्ञान के लिए एवं उनकी उपासना के लिए ऋषियों ने मूर्तियों की कल्पना की है। निदान विद्या का लोप हो जाने के कारण आज मूर्तियों के रचना -- वैचित्र्य पर सन्देह किया जा रहा है। कुछ लोग इस रचना-विज्ञान को बहशीपन भी कहने का साहस करते हैं, कुछ लोग मूर्तियों और उनकी उपासना को मूर्खता, अज्ञानता का द्योतक मानते हैं।
"महाकाली शव पर आरूढ़ हैं, उनकी आकृति भयावनी है, उनकी दाढ़ें अति तीक्ष्ण और भयावह हैं, महाभय देने वाली महामाया महाकाली अट्टहास कर रही हैं। उनके चार हाथ हैं। एक हाथ में खड्ग है, दूसरे हाथ में सद्यः छिन्न मुण्ड है, तीसरा हाथ अभयमुद्रा में है और चौथा हाथ वरमुद्रा में है। उनकी लपलपाती हुई लाल जिह्वा बाहर निकली हुई है। महाकाली निर्वस्त्रा-- सर्वथा नग्न हैं। महाश्मशान भूमि उनका आवास है।"
महाकाली नाम की शक्ति प्रलय-रात्रि के मध्यकाल से सम्बन्ध रखती है। विश्वातीत परात्पर नाम से प्रसिद्ध महाकाल की शक्ति महाकाल का विकास विश्व से पहले का है। विश्व का संहार करने वाली कालरात्रि महाकाली है। महाकाली की प्रतिष्ठा सृष्टिकाल नहीं बल्कि शवरूप है, जिस पर वह आरुढ़ है। सृष्टि के इस रहस्य को ही व्यक्त करने के लिए महाकाली को शवारूढ़ कहा गया है। तात्पर्य यह कि प्रलयकाल में विश्व शव के समान हो जाता है, उस पर अकेली आद्याशक्ति महाकाली खड़ी रहती है। वह आद्याशक्ति अनुपाख्यतमरूपा विनाश करने वाली है। संहार करने के कारण वह भयावनी है और अपनी विजय पर उन्मत्त होकर अट्टहास कर रही है।
खगोल विज्ञान के मत से प्रत्येक गोलवृत्त में ३६० अंश माने जाते हैं। ९० - ९० अंश की गणना से उसके चार विभाग किए जाते हैं। ये विभाग ही उस गोलवृत्त की चार भुजाएँ मानी जाती हैं। वेदों मैं इन्हें ख-स्वस्तिक कहा गया है। खगोल का यही स्वस्तिक इन्द्र (चित्रा नक्षत्र), पूषा (रेवती नक्षत्र), ताक्षर्य (श्रवण नक्षत्र), बृहस्पति (लुब्धक नक्षत्र) है। अर्थात इन चारों का इन नक्षत्रों से सम्बन्ध रहता है। चित्रा के श्रवण १८० अंश पर है, इसी तरह शेष सभी की स्थिति है। यजुर्वेद के निम्नांकित मन्त्र में स्वस्तिक की स्थिति का बोध इस प्रकार कराया गया है:--
स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्षर्योSरिष्टनेमि: स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु।।
इन्द्र, पूषा, ताक्षर्य और बृहस्पति---ये चारों महाकाश की चार भुजाएँ जो पूर्ववृत्त रूप में हैं--महाकाली की चार भुजाएँ हैं। खड्ग संहार का प्रतीक है, सद्यः छिन्न मस्तक अहंकार नाश का प्रतीक है। महाकाली के एक हाथ की अभय मुद्रा है और दूसरे हाथ की वर मुद्रा है। साधकों की मुख्यतया तीन प्रकार की कामनाएँ होती है--एक वर्ग पार्थिव सुख चाहता है।
एक वर्ग स्वर्ग सुख चाहता है और एक वर्ग मोक्ष चाहता है। पार्थिव सुख में साधक के लिए सबसे बड़ा बाधक भय होता है। इस भय को दूर करने के प्रयोजन से महाकाली अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं। स्वर्ग की कामना रखने वाले साधक को भगवती वरदान देने के लिए वरमुद्रा धारण करती हैं। और जो साधक मोक्ष चाहता है, उसे मोक्ष-प्राप्ति के प्रबल विघ्न अहंकार का नाश कर भगवती मुक्त कर देती हैं।
विश्व-सुख क्षणिक है, अतः वह दुःख रूप है। महाकाली परम शिवरूपा है। इसलिए उनकी आराधना से शाश्वत सुख मिलता है। जो महाकाली जीवित दशा में सबका आधार बनी रहती है, वही प्रलयकाल में भी सबका आधार बनती है। विनष्ट विश्व के विनष्ट प्राणियों का निर्जीव भाग भी महाकाली पर स्थित रहता है l इसी परायणभाव का निदान नरमुण्डों की माला है। प्रलय में सब का नाश हो जाता है और पुनः सृष्टि होती है, उस सृष्टि को पुनः आरम्भ करने के लिए जगन्माता संसार के बीज को अपने गले में धारण कर लेती है--- यह संसार बीज ही मुण्डमाला का प्रतीक है।
भगवती महाकाली का स्वरूप निर्वस्त्रा एकदम नग्न बताया गया है। इस नग्नता का रहस्य प्रतीकों के अध्ययन से समझा जा सकता है--- समस्त विश्व ब्रम्हाण्ड महाशक्ति काली का आवरण रूप है--- ' तत सृष्ट्वा तदेवानु प्रविशत वह विश्व की रचना कर उसी में प्रविष्ट हो जाती है, इसलिए विश्व महाकाली का आवरण वस्त्र हो जाता है, किन्तु जब वह विश्व का संहार कर चुकती है तो वह स्व-स्वरूप से उल्वण हो जाती है, उस अवस्था में वह निरावरण हो जाती है l
केवल दिशाएँ ही उसके लिए वस्त्र बनती है। वह पूर्ण दिगम्बरा बन जाती है। यही नग्न भाव का निदान है। महाशक्ति काली महाश्मशान का वास करती है, इसका निदान यह है कि विश्व का प्रलयकाल ही इस महाशक्ति का विकास-काल है। समस्त विश्व जब श्मशान बन जाता है तो इस तमोमयी महाकाली का विकास होता है। महाकाली के स्वरूप तत्व का यह चिन्तन निदान विद्या के अन्तर्गत है।
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
( Dattaprabodhinee Author )
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आगमशास्त्र में इसे ही प्रथम आद्या कहा गया है। रात्रि, प्रलय का प्रतीक है। रात्रि का अर्धरात्रि--घोरतम महानिशा ही महाकाली है।। रात के अन्धकार को ऋषियों ने ८४ भागों में विभक्त किया है। ये विभाग ही महाकाली के ८४ अवान्तर विभाग हैं। महाकाली के ८४ स्वरूप एक-दूसरे से भिन्न हैं। रात्रि के इन्हीं स्वरूपों को समझने के लिए ऋषियों ने निदान विद्या के आधार पर मूर्तियों की कल्पना की है। निदान का दूसरा नाम प्रतीक है।
यह निदान विद्या--प्रतीक विद्या अब तन्त्र ग्रन्थों में उल्लिखित मात्र मिलती है। इस विद्या का प्रायः लोप हो गया है। महाकाली की सभी शक्तियाँ अचिन्त्य हैं, निर्गुण हैं, प्रत्यक्ष से परे हैं, इसलिए उनके स्वरूप - ज्ञान के लिए एवं उनकी उपासना के लिए ऋषियों ने मूर्तियों की कल्पना की है। निदान विद्या का लोप हो जाने के कारण आज मूर्तियों के रचना -- वैचित्र्य पर सन्देह किया जा रहा है। कुछ लोग इस रचना-विज्ञान को बहशीपन भी कहने का साहस करते हैं, कुछ लोग मूर्तियों और उनकी उपासना को मूर्खता, अज्ञानता का द्योतक मानते हैं।
वस्तुतः दश महाविद्याओं के स्वरूप का सम्बन्ध ' निदान विद्या ' से है। काली तन्त्र में महाकाली का स्वरूप यह बताया गया है...
"महाकाली शव पर आरूढ़ हैं, उनकी आकृति भयावनी है, उनकी दाढ़ें अति तीक्ष्ण और भयावह हैं, महाभय देने वाली महामाया महाकाली अट्टहास कर रही हैं। उनके चार हाथ हैं। एक हाथ में खड्ग है, दूसरे हाथ में सद्यः छिन्न मुण्ड है, तीसरा हाथ अभयमुद्रा में है और चौथा हाथ वरमुद्रा में है। उनकी लपलपाती हुई लाल जिह्वा बाहर निकली हुई है। महाकाली निर्वस्त्रा-- सर्वथा नग्न हैं। महाश्मशान भूमि उनका आवास है।"
महाकाली के इस भयानक स्वरूप का रहस्य 'निदान विद्या' के आधार पर इस प्रकार समझा जा सकता है...
महाकाली नाम की शक्ति प्रलय-रात्रि के मध्यकाल से सम्बन्ध रखती है। विश्वातीत परात्पर नाम से प्रसिद्ध महाकाल की शक्ति महाकाल का विकास विश्व से पहले का है। विश्व का संहार करने वाली कालरात्रि महाकाली है। महाकाली की प्रतिष्ठा सृष्टिकाल नहीं बल्कि शवरूप है, जिस पर वह आरुढ़ है। सृष्टि के इस रहस्य को ही व्यक्त करने के लिए महाकाली को शवारूढ़ कहा गया है। तात्पर्य यह कि प्रलयकाल में विश्व शव के समान हो जाता है, उस पर अकेली आद्याशक्ति महाकाली खड़ी रहती है। वह आद्याशक्ति अनुपाख्यतमरूपा विनाश करने वाली है। संहार करने के कारण वह भयावनी है और अपनी विजय पर उन्मत्त होकर अट्टहास कर रही है।
महाकाली चार भुजाओं और उनके आयुधों का रहस्यबोध इस प्रकार है...
खगोल विज्ञान के मत से प्रत्येक गोलवृत्त में ३६० अंश माने जाते हैं। ९० - ९० अंश की गणना से उसके चार विभाग किए जाते हैं। ये विभाग ही उस गोलवृत्त की चार भुजाएँ मानी जाती हैं। वेदों मैं इन्हें ख-स्वस्तिक कहा गया है। खगोल का यही स्वस्तिक इन्द्र (चित्रा नक्षत्र), पूषा (रेवती नक्षत्र), ताक्षर्य (श्रवण नक्षत्र), बृहस्पति (लुब्धक नक्षत्र) है। अर्थात इन चारों का इन नक्षत्रों से सम्बन्ध रहता है। चित्रा के श्रवण १८० अंश पर है, इसी तरह शेष सभी की स्थिति है। यजुर्वेद के निम्नांकित मन्त्र में स्वस्तिक की स्थिति का बोध इस प्रकार कराया गया है:--
स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्षर्योSरिष्टनेमि: स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु।।
इन्द्र, पूषा, ताक्षर्य और बृहस्पति---ये चारों महाकाश की चार भुजाएँ जो पूर्ववृत्त रूप में हैं--महाकाली की चार भुजाएँ हैं। खड्ग संहार का प्रतीक है, सद्यः छिन्न मस्तक अहंकार नाश का प्रतीक है। महाकाली के एक हाथ की अभय मुद्रा है और दूसरे हाथ की वर मुद्रा है। साधकों की मुख्यतया तीन प्रकार की कामनाएँ होती है--एक वर्ग पार्थिव सुख चाहता है।
एक वर्ग स्वर्ग सुख चाहता है और एक वर्ग मोक्ष चाहता है। पार्थिव सुख में साधक के लिए सबसे बड़ा बाधक भय होता है। इस भय को दूर करने के प्रयोजन से महाकाली अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं। स्वर्ग की कामना रखने वाले साधक को भगवती वरदान देने के लिए वरमुद्रा धारण करती हैं। और जो साधक मोक्ष चाहता है, उसे मोक्ष-प्राप्ति के प्रबल विघ्न अहंकार का नाश कर भगवती मुक्त कर देती हैं।
महाकाली मुण्डमाला धारण किए हैं। इस रहस्य को इस तरह खोला जा सकता है...
विश्व-सुख क्षणिक है, अतः वह दुःख रूप है। महाकाली परम शिवरूपा है। इसलिए उनकी आराधना से शाश्वत सुख मिलता है। जो महाकाली जीवित दशा में सबका आधार बनी रहती है, वही प्रलयकाल में भी सबका आधार बनती है। विनष्ट विश्व के विनष्ट प्राणियों का निर्जीव भाग भी महाकाली पर स्थित रहता है l इसी परायणभाव का निदान नरमुण्डों की माला है। प्रलय में सब का नाश हो जाता है और पुनः सृष्टि होती है, उस सृष्टि को पुनः आरम्भ करने के लिए जगन्माता संसार के बीज को अपने गले में धारण कर लेती है--- यह संसार बीज ही मुण्डमाला का प्रतीक है।


भगवती महाकाली का स्वरूप निर्वस्त्रा एकदम नग्न बताया गया है। इस नग्नता का रहस्य प्रतीकों के अध्ययन से समझा जा सकता है--- समस्त विश्व ब्रम्हाण्ड महाशक्ति काली का आवरण रूप है--- ' तत सृष्ट्वा तदेवानु प्रविशत वह विश्व की रचना कर उसी में प्रविष्ट हो जाती है, इसलिए विश्व महाकाली का आवरण वस्त्र हो जाता है, किन्तु जब वह विश्व का संहार कर चुकती है तो वह स्व-स्वरूप से उल्वण हो जाती है, उस अवस्था में वह निरावरण हो जाती है l
केवल दिशाएँ ही उसके लिए वस्त्र बनती है। वह पूर्ण दिगम्बरा बन जाती है। यही नग्न भाव का निदान है। महाशक्ति काली महाश्मशान का वास करती है, इसका निदान यह है कि विश्व का प्रलयकाल ही इस महाशक्ति का विकास-काल है। समस्त विश्व जब श्मशान बन जाता है तो इस तमोमयी महाकाली का विकास होता है। महाकाली के स्वरूप तत्व का यह चिन्तन निदान विद्या के अन्तर्गत है।
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