अक्षोभ्य पुरुष की महाशक्ति तारा'तारा' दूसरी महाविद्या है। प्रथम महाविद्या महाकाली का आधिपत्य रात बारह बजे से सूर्योदय तक रहता है। इसके बाद तारा का साम्राज्य होता है। तारा महाविद्या का रहस्यबोध कराने वाली हिरण्यगर्भ विद्या है। इस विद्या के अनुसार वेदों ने सम्पूर्ण विश्व का आधार सूर्य को माना है। सौर मण्डल आग्नेय है, इसलिए वेदों में इसे हिरण्यमय कहा जाता है। अग्नि का एक नाम हिरण्यरेता है, सौरमण्डल हिरण्यरेत (अग्नि) से आविष्ट है। इसलिए उसे हिरण्यमय कहा जाता है। आग्नेय मण्डल के केन्द्र में सौर ब्रम्ह तत्व प्रतिष्ठित है, इसलिए सौर ब्रम्ह को हिरण्यगर्भ कहा जाता है।
विश्व केन्द्र में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ भू: भुवः स्व: रुप त्रिलोकी का निर्माण करता है तथा त्रिलोकी के अधिष्ठाता स्वयम्भू परमेष्ठी रूप अमृतासृष्टि का और पृथिवी चन्द्र रूपमर्त्य सृष्टि का विभाजन एवं संचालन करता है। हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव सौर केन्द्र में होता है। इसका वर्णन यजुर्वेद इस प्रकार करता है...
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रेभूतस्य जातःपतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां करमैदेवाय हविषाव्विधेम।।
जिस प्रकार विश्वातीत कालपुरुष की महाशक्ति महाकाली है, उसी प्रकार सौरमण्डल में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ की महाशक्ति तारा है। शतपथ ब्राह्मण (२।१।२।१८) का कथन है कि -- " जिस तरह घोर अन्धकार में दीपक बिम्ब के समान तारा चमकता है, उसी प्रकार महातम के केन्द्र में प्रादुर्भाव सूर्य नक्षत्र चमकता है।" वैदिक सिद्धान्त के अनुसार सूर्य सदा स्थिर रहता है, समस्त ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। यह सूर्य बृहती छन्द नाम से प्रसिद्ध विष्वकद्वत के ठीक मध्य से क्षोभरहित होकर स्थिर रूप से तप रहा है, इसलिए इसे तन्त्र शास्त्र में अक्षोभ्य कहा गया है।
वेदों में सूर्य को पहले रुद्र कहा गया है, और 'शिव' तथा 'अघोर' रूप से रुद्र के दो शरीर बताए गए हैं। आपोमय पारमेष्ठ्य पारमेष्ठ्य् (पारमेष्ठ्य़) महासमुद्र में घर्षण होने से आग्नेय परमाणु उत्पन्न हुआ, तदनन्तर 'श्वेतवाराह' नाम के 'प्राजापत्य' वायु द्वारा उस केन्द्र में संघात हुआ। निरन्तर संघात होने से आग्नेय परमाणु पिण्ड रूप में परिणत होकर सहसा जल उठे।
जो पिण्ड प्रज्वलित हुआ वही सूर्य कहलाया। प्रज्वलित रुद्राग्नि में अन्न भक्षण करने की इच्छा प्रकट हुई, अन्नाहुति प्राप्त होने से पहले वह सूर्य महाउग्र था और उस महाउग्र सूर्य की शक्ति को उग्रतारा कहा गया। रुद्राग्नि (सूर्य) में जब अन्न की आहुति होती है तो वह शान्त रहता है और अन्नाहुति न मिलने से वही सूर्य संसार का नाश कर देता है।
सूर्य के उस उग्रभाव और उसकी उग्रशक्ति का निरूपण करते हुए 'शाक्त प्रमोद तारा तन्त्र' में इस प्रकार रहस्योद्घाटन किया गया है...
- प्रलयकाल में वायु दूषित होकर विषाक्त बन जाता है। इस विषैलेपन का प्रतीक साँप है।
- उग्रतारा की सत्ता विश्वकेन्द्र में रहती है। प्रलय हो जाने पर जब विश्व श्मशान बन जाता है, शवरूप हो जाता है, तब उग्रतारा उसी शवरूप केन्द्र पर आरूढ़ रहती है- यह शव के हृदय पर सवार होने का प्रतीक है।
- रुद्राग्नि अन्नाहुति न मिलने पर प्रलय तीव्र रूप धारण कर लेता है तो वह साँय-साँय शब्द करने लगता है - यही नारी का अट्टहास है।
- प्रलयकाल में पृथिवी और चन्द्र तथा उनमें रहने वाले सभी प्राणियों का रस (श्री) उग्र और सौर ताप से सुख जाता है और सबका रासभग उग्रतारा पी जाती है। रस प्राणियों का श्री भाग है। यह मुख्यतया शिर के कपाल में रहता है। श्री (रस) भाग के रहने के कारण मस्तक शिर कहलाता है (शतपथ ०।६।१।१) इसी को आधार बनाकर उग्रतारा सबका रसपान करती है। शिर की खोपड़ी का प्रतीक खप्पर है।
- यजुर्वेद (१६।७) में नीलग्रीवोविलोहितः कहकर सूर्य को नीलग्रीव कहा है, वह पिंगलवर्ण है। उग्रसूर्य की शक्तितारा भी नीलग्रीव है। पिंगलवर्ण है। सूर्य की रश्मियाँ तारा की जटाएँ हैं। हर सौररश्मि प्रलय के भीषण काल में जहरीली गैसों से भरी रहती है- उसी का प्रतीक निलविशाल पिंगल जटाजूटैक नागैर्युता है।
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
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