इतिहास में जितने भी कोई संघर्ष (युद्ध) हुए थे तो वह केवल वासना के बीज के माध्यम से हुए थे, चाहे वह रामायण हो या महाभारत। शरीर के भीतर छिपकर बैठी हुई वासना जो न केवल सांसारिक और आध्यात्मिक अपरिपक्व जीव (आत्मा)को गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है, साथ ही भविष्य के बाकी जीवन को भी अंधकारमय बना देती है।
चरित्रपूजन के साधन में सबसे बड़ी और सबसे घातक अंजाम देने वाली 'वासना बीज' यह रिपु गणों में से एक है जो सहज ही हमे नुकसान पहुँचाने में सक्षम है, तथा महामाया का विकृतिकारक वियोग है। इस वासना के अधीन होकर आध्यात्मिक जीवन का अंत ना हो इस हेतु को ध्यान में रखते हुए संबंधित रिपुगणो में से एक वासना बीज की दत्तप्रबोधिनी सेवा ट्रस्ट के माध्यम से सूक्ष्म पहचान प्रकाशित कर रहे हैं।
आध्यात्मिक जीवन की दत्त सिद्धांत के माध्यम से प्रगति करने के लिए, प्राथमिक स्तर पर हमारे आचरण, भक्ति मार्ग और सत्संग की आवश्यकता होती है। संबंधित आध्यात्मिक नामस्मरण (नामजाप)की शुरुआती अवस्था में 84 लक्ष , योनि में भ्रमण करने वाला जीव जब मानव जन्म में आता है, तो पिछले सभी जन्मों की वासना का अधःस्थान मानवी बुद्धि में तेजीसे उफनने लगता है।इसके तहत, हमें योगक्रिया की जरा भी पहचान नहीं होती हैं, जिससे हम वासना के वशीभूत हो कर अधिक महत्वाकांक्षी बन जाते है।
इस प्रकार, जीवन मे हमारे हाथों होने वाले जाने अनजाने कर्म की पहचान नहीं होती है। जब सभी योनियों का पाप और पुण्य एक ही स्तर पर होता है, तब मानव शरीर प्राप्त होता है। इस शरीर के गतजन्म के स्वभाव , कर्म और पिंड की पुनरावृत्ति होती रहती है इस वजह से मानवी इच्छाशक्ति मजबूत होती जाती है। यदि इस इच्छाशक्ति को वासना के बीजों द्वारा स्पर्श करने से सद्बुद्धि को विपरीत बुद्धि में परिवर्तित होने के लिए केवल एक पल ही काफी है।
वासना क्या है?
वासना शब्द का अर्थ है 'वास + न+आ'। इसमें 'वास' का अर्थ है घर कर के रहना, 'न' का अर्थ है नकारात्मक ऊर्जा और 'आ' का अर्थ है नारायण की परमशक्ति। इसलिए, 'वासना यानी शरीर के अंतर्गत परमात्मा नारायण का अद्वैतवाद छिपाकर खुद का घर बनाने वाली नकारात्मक ऊर्जा' इस वासना की धारा में संसारिक जीवों के साथ आध्यात्मिक साधक भी आसानी बह जाते हैं। परमार्थिक मार्ग पर चलने वाले साधक वासना के छिपे हुए दांवपेंच का पता नहीं लगा सकते हैं।
जो साधक पहचान पाते है वें ही धीरे धीरे अंतरिक प्रगति कर सकते है। को। पंढरपुर में भगवान श्री हरि विठ्ठल की मूर्ति को देखते हैं, तो आप उनको अपनी कमर पर हाथ रखे हुए देखते है इसके पीछे भवसागर में कालसमुद्र का प्रवाह केवल कमर तक ही है। इस से खुद की कमर पर दोनों हाथ रखकर भगवंत वासना बीज को पहचानकर उन्हें नष्ट करो ऐसा मर्म सूझlते है।
जन्म घ्यावा लागे। वासनेच्या संगे।। इस ओवी में पुनर्जन्म सिर्फ वासना के बीज के कारण होता है इसका समर्पक तत्व है। ऐसे वासना बीजों के हमारे अंतरंग में अतिक्रमण केवल जीवन के संतुलन को नष्ट करता है। मानव शरीर में वासना के बीज के स्थान गिनीचुनी जगहों पर स्थित हैं।शरीर के षटचक्र स्थित लिंगदेहात्मक शिवलिंग स्थानों में, अनुक्रम नुसार आज्ञाचक्र (कपाल प्रदेश, माथा), अनाहत चक्र (हृदय क्षेत्र) और मूलाधार चक्र (गुदाद्वार प्रदेश) इन तीनों जगहो पर परमशिवशक्ति के आवेग को अज्ञानमय अंधकार से ढक कर वासना बीज शरीर में रममाण होता है।
ऐसे अज्ञानरूपी अंधकार का समूल ज्ञानज्योतिमय आत्मप्रकाश से नाश होने के पश्चात ही वासना के बीज की यथार्थ पहचान होने पर उसका प्रभावहीन वार फिरसे हमारी प्रकृति पर नहीं हो सकता है। हम दत्त सिद्धांत के माध्यम से सतर्क और सतर्क रूप की अभिव्यक्ति का अनुभव कर सकते हैं। इस तरह का चरित्रयुक्त आत्मसंधान चिरकाल स्थायी और लगातार बढ़ते रहने वाला होता है।
वासना के बीज के देह के अंतर्गत तीन प्रकार होते है। निम्नलिखित है।
- 1। काम वासना
- 2। विषय वासना
- 3। प्रेत वासना
1। देह के अंतर्गत काम वासना उत्तेजना
गत 84 लक्ष योनियों में भटकने वाले जीव का लिंग देह उत्सर्जन योगक्रिया का अभिन्न क्षणभंगुर योगअंग है। यह काम वासना मानवी शरीर में बौद्धिक स्तर पर कम से कम 100 से 1000 बारी से उफनकर आती है। एकमात्र बुद्धिवादी मानवी शरीर में बहुत रहस्यमयी तत्व अविर्भूत है। कामवासना यह विषयोपभोग मानवी स्थूलशरीर का सबसे परिणामकारक अधोमुखी पारगमन मार्ग है। कामवासना की धारा में, सांसारिक जीव अपनेआप या आसक्ति से प्रवाहित हो कर नरक में गिरते तो है ही साथ में द्यूत कर्म के अत्याचारी शृंखला के तहत अगला मानवी जन्म भी खो देते है। ऐसी कामवासना की शांत और विनम्र उलझनों भरे प्रकोप में से बाहर निकलने के लिए, हमें अपने शरीर में वासना के बीज के मूल स्थान को स्वाधिष्ठान चक्र पर पहचानना चाहिए। जिससे खुद के कर्मों को सत्कर्महेतु योग्य बंधन में रख सकते हैं।
2। विषय वासना और संबंधित सूक्ष्म आत्मनिरीक्षण
देहान्तर्गत मानसिकता में हमेशा उठनेवाली प्यास (हव्यास) या बहुत लालच भरी सोच यानी विषयवासना। इस विषयवासना की पूरी जिम्मेदारी बहुत ही चंचल रहनेवाले बहिरमन की है। यही बहिरमन विभिन्न प्रलोभनों में फंस कर अपना जीवन अस्तव्यस्त करता है। इस बहिरमन कि चंचलता को बुद्धि के अधीन लाना चाहिए। विषयवासना का देहान्तर्गत स्थान यानी आज्ञाचक्र स्थित कपाल प्रदेश है।। हमारे बहिरमन को बुद्धि के अधीन लाने से सद्बुद्धि की अनुभूतिआने लगती है और तब असाधारण ऐसा आत्मानंद (गौरव) प्राप्त होने लगता है।
इस आनंद को शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है।
3। प्रेत वासना और संबंधित सूक्ष्म आत्मनिरीक्षण
सांसारिक लोगों को इस वासना का कोई ज्ञान नहीं रहता है। प्रेत वासना यानी देहबाह्य सूक्ष्म तामसिक शक्तियों के माध्यम से शरीर का कामुक शोषण या अवरोध है। इस वासना के तहत घर के सदस्यों द्वारा बिना किसी सावधानी या नियमों के किए गए द्युत कर्मो के परिणामस्वरूप प्रेत वासना के परिणाम उभरकर सामने आते है।
यह विषय आज भी अधिकांश लोगों के जीवन से जुड़ा हुआ है। इसके परिणाम घर के सदस्यों के मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य पर होते हैं। मानव शरीर में ऐसी प्रेतवाधित वासना का वास्तविक स्थान देहान्तर्गत रहने वाला गुदाद्वार प्रदेश है। इस तरह की भयावह वासना प्राथमिक स्तर पर कामुक शोषण के साथ शुरू होती है और अंततः एक भूत या पिशाच बाधा में परिणत होती है। घर के सदस्यों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
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