हम पितरोंको भुल जाते हैं l इसही वजह से हमे हमारे जीवन में काफी मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक कठिणाईओंका सामना करना पडता है l जो लोग पितरोंको स्मरण करके उनकें श्राद्धादी कर्म करतें है ऐसे सांसारीक लोगोंको धार्मिक पाखंडी लोग ठगतें है l इस तरह दोनोंही वजहोंसे होनेवाली परेशानियों एवं कठिनाईओंसे बचने हेतु, ईस समस्याका निराकरण करने हेतु सभी पहलुओंको ध्यान में रखते हुऐ बडी ही सुझाबुझ के साथ ईस समस्यासें निपटनें के लिऐ ' दत्तप्रबोधिनी सेवा ट्रस्ट ' माध्यमसें योग साधन अख्यायिका विस्तारपुर्वक लिख रहें है l
देव ऋण, पितृऋण एवं ऋषीऋण ( देवतानां पितृणांच ऋषीणांच तथा नरः ) ईनमे से पुजा, अर्चा, व्रत और उपवास ईत्यादी साधनोंसे मनुष्य देव ऋण से मुक्ती पाता है l सद्गुरी सेवा, नामजप ईन साधनोंसे ऋषी ऋण और श्राद्ध व पितृ पुजन करकें पितृऋण से मुक्ती पाता है l पितृ और कोई नही बल्की हमारें वंश पुर्वज है, जो काल और अकाल मृत्यु पश्चात पिशाच्च योनी में प्रवेश करतें है l मृत्यू पश्चात भस्म बनें हुऐ स्थुल देह का संस्कार विधीवत पुरा करने के पश्चात जीवात्माका लिंगदेह ऐवं आत्मा ऐसा विभाजन होता है l
संजीवन विद्यानुसार किसी भी देह कें काल मृत्यू अंतर्गत प्राणत्याग पश्चात सबसें पहलें आत्मा वह शरीर छोड देती हैं और इसके बाद देह में विराजाने वालें सभी ग्यारह रुद्रवायु एकेक करके शरीर का त्याग करते है l ईस पुरी प्रक्रीया दरम्यान लिंगदेह वहीं देहांतर्गतही स्थित रहता है l विधीवत प्रेतसंस्कारोत्तर ईस प्रेत प्रेतयोगनी याने काक योनी में जन्म होता है l
' आत्मा ' अमर और अविनाशी होने के कारण वह हमारे अंतर्बाह्य देहमें वास करके हमारे द्वारा खुदकी वासना तृप्त करनेंका प्रयास करता है l यह भी देखनेमें इया हैं की, यही पितृ अपनें ही खानदान को खत्म करनें के लिऐ उतावलें होते है l ईसी वजह सें घर कें ( खानदान कें )सदस्योंका मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक ऐवं आध्यात्मिक जीवन का विनाश करनें का प्रयास करतें है l कुछ उदाहरणों में तो ईसी कारण मृत्यु का खिंचा चला आना भी देखा गया है l ईन पुर्वज पितरों में सभी प्रकार के, पिंड कें ( स्वभाव कें ) आत्मा विराजतेँ है l
हर खानदान में पितरोंकी सख्या कमसें कम हजारोंमें तो होती ही है l ईनमें से कुछ शांत, तो बहुत सारें अशांत भी होते है l जो हमारे भौतिक जीवनकी कठीनाईओंका मुल कारण होते है l ईन सभी अतृप्त आत्मओंके समुदायको शांत करने हेतु ही श्राद्ध ऐवं पितृ पुजन किया जाता है l
श्राद्ध ईस शब्द की व्याख्या ? ( मतलब ईसप्रकार है.... )
' श्रद्धाया यत् क्रियते तत् क्रीयते यत् श्राद्धम् ' ईसका अर्थ यह है की, ' श्राद्ध को श्रद्धापुर्वक करना चाहीऐ l पितरोंका गमन काल मध्यान्ह कें बाद का है l उनको तील, वस्त्र, फल, मुल ऐवं तंडुल ईस सामग्रीसें तर्पण करना चाहीऐ l ईस सें वह तृप्त होते है l
ईसी के विपरीत अगर किसीनें श्राद्ध कर्म नही किया तो, मृत देह कों अनगिनक यातनाऐ भुगतनीं पडती है l जो किं सारे खानदान और संबंधित कुल कें लिऐ उचित नही है l ईसी वजह सें कुल में कोई वीर, कर्तबगार ऐवं पुरुषार्थ संपन्न पुरुष का निर्माण नही होता है l वह आरोग्य संपन्न और दिर्घायुषी नहीं होते है l कुछ लोग श्राद्ध करनें के बजायें संस्थाओंको दान धर्म करतें है कितु यह शास्त्र संमत नही है, ईससे श्राद्ध कर्मका फल ऐवं पितरोंको तृप्ती प्राप्त नहीं होती l श्राद्ध कर्म करनेंसे प्रैत पिशाच्च योनी में विहार करनेंवालें जीवोंका उद्धार होत है l ईस संबंध में गरुड पुराण ऐवं वामद्वादशी यह ग्रंथ पठन करीये, श्राद्ध विधीसें मृतात्माओंको गती मिलती है l
पितरोंको पिंड प्रदान करके, पुजा करनें के पश्चात अगर उनमें से मंजाला पिंड प्रसाद कें रुप में पत्नी द्वारा ग्रहण करनेंसें संतती प्राप्ती कें सुंदर योग बनते है l जिन मनुष्योंको परिस्थिती अनुरुप श्राद्ध कर्म करना संभव ना हो तो वह मनुष्य दक्षिण दिशा कि और देखकर पितरोंका स्मरण करकें भक्तीभावसें नमस्कार करतें है तो भी वह पितरोंतक पोहोचता है और पितृ तृप्त हो जातें है l
पितरोंको तर्पण करनें हेतु आसानसें उपाय आपकें निवेदन कों स्वीकृत करनेकें पश्चात ही बतायेँ जाऐंगे l क्यों की उपाय करते वक्त श्राद्ध विधी कर्म की क्रीया का चलतें रहना अनिवार्य है l संंबंधित उपाय हेतु दत्तप्रबोधिनी सेवा ट्रस्ट सें संपर्क किजीऐ l
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
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भ्रमणध्वनी : +91 9619011227
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