पंचवक्त्रशिव की महाशक्ति षोडशी :सूर्य ही त्रैलोक्य का विश्व के समस्त प्राणियों का, अमृत-मर्त्य प्रजा का निर्माण करता है। वेदों में इसके प्रमाण मिलते हैं...
- सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च (यजुर्वेद)
- निवेशयन्नमृतं मर्त्यत्र्च (यजुर्वेद)
- नूनंजनाः सूर्येण प्रसूताः (ऋग्वेद)
जब सूर्य उत्पन्न होते ही उग्ररूप धारण करने लगा तो उसमें पारमेष्ठ्य सोम की आहुति होने लगी। आहुति पाते ही सूर्य की उग्रता शान्त हो गई, रुद्राग्नि सूर्य शिव बन गया। शिव भावापन्न सूर्य ही संसार का उत्पादक है। शिवात्मक सूर्य ही पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक रूप त्रिलोकी का और उसमें रहने वाली अमृत-मर्त्य प्रजा का निर्माण करता है।
इस शिवात्मक सूर्यशक्ति का तन्त्रशास्त्र में 'पंचवक्त्र शिव' की शक्ति कहा जाता है, उस शक्ति का नाम 'षोडशी' है। जिस तरह आग्नेय रुद्र की शक्ति 'तारा' है, उस तरह पंचवक्त्र शिव की शक्ति षोडशी है। मध्यान्हकाल का सूर्य 'घोरसूर्य' कहा जाता है और प्रातःकाल का सूर्य 'शान्त शिव कहा जाता है। शान्त शिव की शक्ति शिव है।
इसका विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है--शक्तिभेद एवं कार्यभेद से भगवान शंकर के अनेक रूप होते हैं। शिव तो एक ही हैं, जब वह सूर्य रूप में पाँच दिशाओं में व्याप्त होते हैं, तो पंचवक्त्र -- पंचमुखी बन जाते हैं। उनके पाँचों मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा, दक्षिणा और उर्ध्वा दिशाभेद से क्रमशः--
- १. तत्पुरुष,
- २. सद्योजात,
- ३. वामदेव,
- ४. अघोर और
- ५. ईशान नाम से प्रसिद्ध हैं।
ये पाँचों मुख क्रम में चतुष्कल, अष्टकल, त्रयोदशकल, अष्टादशकल और पंचकल हैं।
इन पाँचों मुखों का वर्ण क्रम से हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत है। पंचवक्त्र शिव के दस हाथ हैं और दसों हाथों में वह अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग, और अग्नि-- ये दस आयुध धारण किए रहते हैं। ये शिव सर्वज्ञ हैं, इनके तीन नेत्र हैं, इनका स्वरूप अनादि बोध है, यह स्वतन्त्र, अनुप्तशक्ति और अनन्तशक्तिमान् हैं, पाँचों दिशाओं में इनकी सत्ता है और पाँचों दिशाओं को देखते रहते हैं, इनके तीन स्वरूप धर्म हैं -- आग्नेय, वायव्य और सौम्य। इन तीनों स्वरूप धर्मों के प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैंl
अग्नि,वायु और इन्द्र -- आग्नेय प्राण के भेद हैं। वायु, शक्ति और अग्नि -- वायव्य प्राण के भेद हैं। वरुण, चन्द्र और दिक् -- सौम्य प्राण के भेद हैं। इन सबको मिला देने से शिव की ९ शक्तियाँ होती हैं। ये शक्तियाँ घोर उग्र हैं। इन नवों शक्तियों का आधारभूत 'परोरजा' नाम का सर्वप्रतिष्ठा रूप शान्तिमय प्राजापत्यप्राण है। दस हाथ और दस आयुध इन्हीं शक्तियों के प्रतीक हैं।
उपर्युक्त श्लोक में शिव के दस आयुधों में से एक 'भीतिहरं' है, जिसका पारिभाषिक नाम अभय है। अभय से लेकर अग्नि तक दस आयुधों का वैज्ञानिक विवेचन इस प्रकार है...
- (१) अभयम् -- आगमशास्त्रीय व्याख्या के अनुसार अभयम् /प्राजापत्यम् / शान्तिः / परोरजाः / प्राणः = सोमाहुति का प्रतीक शिव के ललाट पर स्थित चन्द्र है। शान्ति रूप परोरजाः का प्रतीक अभयमुद्रा है। शिव स्वर वाक् के अधिष्ठातृ देवता हैं -- इनका निदान (प्रतीक) घण्टा है।
- २) टंकः / आग्नेयतापः / अग्नि: / आग्नेयप्राणः= टंक का तात्पर्य ताप है।
- (३) वज्रम् / ऐन्द्रताप / इन्द्रः / आग्नेयप्राणः= इसका तात्पर्य ऐन्द्र ताप है।
- (४) शूलम् / वायव्यतापः / वायुः / आग्नेयप्राणः= इसका तात्पर्य वायव्य ताप है। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि शूल (पीड़ा, ताप) बिना वायु के नहीं होता है। न वातेन बिना शूलम्।
- (५) पाशः / वारुणः हेतिः / वारुणः / सौम्यप्राणः= 'वरुण्या वा ऐषा यद यदरज्जुः' इस वचन के अनुसार पाश का तात्पर्य वारुण्य ताप है।
- (६) खड्ग / चान्द्रहेतिः / चन्द्र / सौम्य प्राणः= चान्द्रशक्ति।
- (७) अड्कुश / दिश्योहेतिः / दिक् / सौम्य प्राणः= दिश्योहेति।
- (८) घण्टा / ध्वनिः / शब्दः / वायव्य प्राणः= स्वरवाक् का अधिष्ठाता।
- (९) नागः / संचरनाड़ी / वायुः / वायव्य प्राणः= जिस वायुसूत्र से रुद्र प्रविष्ट होते हैं, वह संचरनाड़ी है। इस नाड़ी का नासारन्ध्र सर्प प्राण से सम्बन्ध है। समस्तग्रह सर्पाकार हैं, इनमें सौर तेज व्याप्त रहता है। सब ग्रह रूप सपों के साथ रुद्र सूर्य का भोग होता है; इसलिए उनके शरीर में सर्प लिपटा होने का निदान है।
- (१०) अग्निः / प्रकाशः / अग्निः / वायव्य प्राणः = प्रकाश स्वरूप दृष्टि का प्रतीक अग्नि ज्वाला है।
इस प्रकार के प्रतीकों से मण्डित पंचवक्त्र शिव हैं, जिनकी शक्ति षोडशी है पंचवक्त्र शिव पंचकल, अव्य पंचकल, अक्षर पंचकल, आत्मक्षर परात्पर की समष्टि हैं, इसलिए इन्हें ' षोडशी पुरुष' कहा जाता है। स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्र और पृथिवी-- इन पाँचों में से एक मात्र सूर्य में ही षोडशी का पूर्ण विकास होता है, क्योंकि स्वयम्भू अव्यक्त है, इसलिए वहाँ विकास नहीं, यज्ञ वृत्ति के कारण परमेष्ठी में विकास नहीं हो पाता, वहाँ षोडशी अन्तर्लीन रहती है। सूर्य अग्निमय है, चितधर्मा है, इसलिए इसमें आया हुआ चिदात्मा पूर्णरूप से उल्वण हो जाता है। स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्र और पृथिवी - इन पाँचों में क्रमश ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि, और सोम -- इन पाँच अक्षरों की प्रधानता रहती है। इन पाँचों में जो इन्द्रात्मक सूर्य है, उसमें ही षोडशी का विकास है, इसलिए सूर्य रूप इन्द्र के लिए कहा गया है। इन्द्रोह वै षोडशी।
' स व एष आत्मा वाङ्ग्मयः प्राणमयो मनोमयः'बृहदारण्यक उपनिषद् के इस कथन के अनुसार सृष्टि साक्षी आत्मा-मन, प्राण, वाङ्ग्मय है। सूर्य में मन-प्राण और वाङ्ग्मय तीनों की सत्ता है। स्थावर जंगमात्मक विश्व का आत्मा सूर्य है। सूर्य में षोडशकाल पुरुष का पूर्ण विकास होने के कारण यह षोडशी है और इसकी शक्ति भी षोडशी कहलाती है। इसी षोडशी शक्ति से ही भूः भुवः स्वः तीन ब्रह्मपुर उत्पन्न हैं। इसलिए तन्त्रशास्त्र में इसे 'त्रिपुरसुन्दरी' कहा गया है। शाक्त प्रमोद तन्त्र में त्रिपुरसुन्दरी का स्वरूप यह है--
बालार्कमंडलाभासां चतुर्बाहां त्रिलोचनाम्।
पाशांकुशघरांश्चापं धारयन्तीं शिवां भजे।।
त्रिपुरसुन्दरी के इस स्वरूप का तात्विक चिन्तन इस प्रकार है-- त्रीणि ज्योर्तीशि स च ते स षोडशी-- तन्त्रशास्त्र के इस कथन के अनुसार शिव और शिवा ने तीन ज्योतियों से विश्व को प्रकाशित कर रखा है। ये तीन ज्योतियाँ हैं--अग्नि (सूर्य का ताप), प्रकाश और चन्द्र (आहुति सोम)। इन्हीं तीन ज्योतियों का प्रतीक त्रिपुरसुन्दरी का नेत्र है। इन्हीं ज्योतियों के कारण सूर्य को लोकचक्षु कहा जाता है। सम्पूर्ण खगोल में सौर-शक्ति व्याप्त है और खगोल की चार भुजाएँ (स्वस्तिक आकार) त्रिपुरसुन्दरी की चार भुजाओं का प्रतीक है। त्रिपुरसुन्दरी सोमाहुति पाकर शान्त रहती है, अतः प्रातः काल का बाल सूर्य त्रिपुरसुन्दरी की साक्षात् प्रकृति है। बालार्क (प्रातःकाल का सूर्य) इसी अवस्था का प्रतीक है। सूर्य से उत्पन्न होने वाली प्रजा सौर शक्ति से आबद्ध कर रखा है। 'पाश' उसी आकर्षण - शक्ति का प्रतीक है। अक्षर रूपा उस नियति के भय से सभी अपना-अपना कार्य यथावत् कर रहे हैं। सूर्य भी उसके भय से तपता है, अग्नि भी उसके भय से तपती है। उसके भय से इन्द्र, वायु, मृत्यु सभी अपने-अपने कार्य में रत रहते हैं।
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्योर्धावति पंचमः।।
इस तरह त्रिपुरसुन्दरी सभी पर अंकुश रखती है। अंकुश इसी नियन्त्रण व्यवस्था का प्रतीक है। त्रिपुरसुन्दरी शर धारण करती है। जो उसके निर्धारित अटल नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें वह विनष्ट कर डालती है। पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ-- इन तीन लोकों में व्याप्त रुद्र के अन्न, वायु और वर्षा -- ये तीन प्रकार के इषु (बाण) ,है। ये इषु त्रिपुरसुन्दरी के हैं। इन्ही इषुओं से वह संहार करती है।त्रिपुरसुन्दरी के आयुध शर का प्रतीक अन्न, वायु और वर्षा है। त्रिपुरसुन्दरी शक्ति सिद्धिदात्री है। बिना इसकी कृपा से साधक को सिद्धि नहीं मिलती है।
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
( Dattaprabodhinee Author )
भ्रमणध्वनी : +91 93243 58115
( Whatsapp Or Sms Only )
( Whatsapp Or Sms Only )
ईस विषय से अनुरुप महत्वपुर्ण पोस्टस्...
0 टिप्पणियाँ