इस महाशक्ति का कोई पुरुष न होने के कारण वह 'विधवा' कही जाती है। यह दरिद्रता की देवी है। संसार में दुःख के मूल कारण रुद्र, यम, वरुण और निर्ऋति--ये चार देवता हैं, इनमें निर्ऋति ही धूमावती है। प्राणियों में मूर्च्छा, असाध्य रोग, शोक, कलह, दरिद्रता आदि वही निर्ऋति धूमावती उत्पन्न करती है।
मनुष्यों का भिखारीपन, पृथ्वी का क्षत-विक्षत होना, ऊसरपन, बने-बनाए भवनों का ढह जाना, मनुष्य का पहनने के लिए फटे-पुराने वस्त्र भी न मिलने की स्थिति, भूख, प्यास और रुदन की स्थिति, वैधव्य, पुत्रशोक आदि महादुःख, महाक्लेश -- दुष्परिस्थितियाँ -- सब धूमावती का साक्षात् रूप हैं।
शतपथ ब्राह्मण घोरपाप्मा वै निर्ऋतिः कहकर इस शक्ति को 'दरिद्रा' कहता है। इसी को शान्त करने के लिए 'निर्ऋति यज्ञ' किया जाता है, जिसे वेदों में 'निर्ऋति इष्ट' कहा गया है। निर्ऋति शक्तियाँ वैसे तो सर्वत्र व्याप्त रहती हैं, किन्तु ज्येष्ठा नक्षत्र इनका प्रधान केन्द्र है। ज्येष्ठा नक्षत्र से यह आसुरी, कलहप्रिया शक्ति धूमावती निकली है। यही कारण है कि ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न व्यक्ति जीवन भर दारिद्र्य--दुःख को भोगता है। धूमावती मनुष्यत्व का पतन करती है। इसीलिए इसे 'अवरोहिणी' कहते हैं। यही 'अलक्ष्मी' नाम से भी प्रसिद्ध है।
वैदिक साहित्य में 'आप्त प्राण' को असुर और ऐन्द्र प्राण को देवता कहा गया है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से वर्षा ऋतु आरम्भ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी को समाप्त होती है। यही वर्षा ऋतु की परम अवधि ज्योतिष शास्त्र ने बतायी है।आषाढ़ शुक्ल से कार्तिक शुक्ल तक इन चार महीनों में पृथिवी पिण्ड और सौर प्राण 'आपोमय' रहता है।
चातुर्मास्य में निर्ऋति का साम्राज्य होने से लोक और वेद के सभी शुभ काम इन चार महीनों तक वर्जित रहते हैं। संन्यासी भ्रमण त्याग कर एक स्थान पर चातुर्मास्य व्रत करता हुआ स्थित हो जाता है। विवाह, जनेऊ, यज्ञ, यात्रा आदि कोई भी मंगल कार्य नहीं किया जाता है, क्योंकि चातुर्मास्य में आसुर आप्य प्राण की प्रधानता रहती है, ऐन्द्र प्राण दब जाता है, इसीलिए ये चार मास देवताओं के 'सुषुप्ति-काल' माने जाते हैं। देवता सोते रहते हैं।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी इसकी अन्तिम अवधि है, इसलिए इसे नरक चौदस कहा जाता है। नरक चतुर्दशी के दिन दरिद्रारूपा अलक्ष्मी का गमन होता है और दूसरे ही दिन अमावस्या को रोहिणीरूपा कमला (लक्ष्मी) का आगमन होता है।
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को कन्या राशि का सूर्य रहता है। कन्या राशिगत सूर्य नीच का माना जाता है। इस दिन सौर प्राण मलिन रहता है और रात में तो वह भी नहीं रहता है। इधर 'अमा' के कारण चान्द्र ज्योति भी नहीं रहती और चार मास तक की बरसात से प्रकृति की प्राणमयी अग्नि ज्योति भी निर्बल पड़ जाती है, इसलिए तीनों ज्योतियों का अभाव हो जाता है।
फलतः ज्योतिर्मय आत्मा इस दिन वीर्यहीन हो जाता है। इस तम भाव को निरस्त करने के लिए साथ ही लक्ष्मी के आगमन के उपलक्ष्य में ऋषियों ने वैध प्रकाश (दीपावली) और अग्नि क्रीड़ा (फुलझड़ी पटाखे) करने का विधान बनाया है।
निष्कर्ष यह कि निर्ऋतिरूपा धूमावती शक्ति का प्राधान्य वर्षा काल के चार महीनों में रहता है।
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
( Dattaprabodhinee Author )
मनुष्यों का भिखारीपन, पृथ्वी का क्षत-विक्षत होना, ऊसरपन, बने-बनाए भवनों का ढह जाना, मनुष्य का पहनने के लिए फटे-पुराने वस्त्र भी न मिलने की स्थिति, भूख, प्यास और रुदन की स्थिति, वैधव्य, पुत्रशोक आदि महादुःख, महाक्लेश -- दुष्परिस्थितियाँ -- सब धूमावती का साक्षात् रूप हैं।
वैदिक साहित्य में 'आप्त प्राण' को असुर और ऐन्द्र प्राण को देवता कहा गया है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से वर्षा ऋतु आरम्भ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी को समाप्त होती है। यही वर्षा ऋतु की परम अवधि ज्योतिष शास्त्र ने बतायी है।आषाढ़ शुक्ल से कार्तिक शुक्ल तक इन चार महीनों में पृथिवी पिण्ड और सौर प्राण 'आपोमय' रहता है।
चातुर्मास्य में निर्ऋति का साम्राज्य होने से लोक और वेद के सभी शुभ काम इन चार महीनों तक वर्जित रहते हैं। संन्यासी भ्रमण त्याग कर एक स्थान पर चातुर्मास्य व्रत करता हुआ स्थित हो जाता है। विवाह, जनेऊ, यज्ञ, यात्रा आदि कोई भी मंगल कार्य नहीं किया जाता है, क्योंकि चातुर्मास्य में आसुर आप्य प्राण की प्रधानता रहती है, ऐन्द्र प्राण दब जाता है, इसीलिए ये चार मास देवताओं के 'सुषुप्ति-काल' माने जाते हैं। देवता सोते रहते हैं।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी इसकी अन्तिम अवधि है, इसलिए इसे नरक चौदस कहा जाता है। नरक चतुर्दशी के दिन दरिद्रारूपा अलक्ष्मी का गमन होता है और दूसरे ही दिन अमावस्या को रोहिणीरूपा कमला (लक्ष्मी) का आगमन होता है।
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को कन्या राशि का सूर्य रहता है। कन्या राशिगत सूर्य नीच का माना जाता है। इस दिन सौर प्राण मलिन रहता है और रात में तो वह भी नहीं रहता है। इधर 'अमा' के कारण चान्द्र ज्योति भी नहीं रहती और चार मास तक की बरसात से प्रकृति की प्राणमयी अग्नि ज्योति भी निर्बल पड़ जाती है, इसलिए तीनों ज्योतियों का अभाव हो जाता है।
फलतः ज्योतिर्मय आत्मा इस दिन वीर्यहीन हो जाता है। इस तम भाव को निरस्त करने के लिए साथ ही लक्ष्मी के आगमन के उपलक्ष्य में ऋषियों ने वैध प्रकाश (दीपावली) और अग्नि क्रीड़ा (फुलझड़ी पटाखे) करने का विधान बनाया है।
निष्कर्ष यह कि निर्ऋतिरूपा धूमावती शक्ति का प्राधान्य वर्षा काल के चार महीनों में रहता है।
संपर्क : श्री. कुलदीप निकम
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भ्रमणध्वनी : +91 93243 58115
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