आत्म जागृती के लिऐ नाथपंथीय ध्यान धारणा भाग १


नाथपंथ में प्राणायाम और त्रिवेणी बंधन के साथ-साथ ध्यान को भी बहुत महत्व दिया गया है। मूल रूप से, ध्यान और समाधि का निर्माण अष्टांग योग के अंतिम दो चरणों में किया गया था। यदि आप नाथपंथ के महावाक्य  "अलख निरंजन" पर ध्यान देते हैं, तो " कभीभी न चमकने वाला जीवन्मुक्त शिव", इस रहस्यमय मतीतार्थ से सिद्धावस्था प्राप्त कर लेना , यही इस पंथ का जय आदेश है।

आत्मानुभव प्राप्त करने के लिए प्राणायाम और नामस्मरण के माध्यम से अपने मन को स्थिर करके निर्विकार मन को आत्मचिंतन की ओर लाना सहज संभव है।  इस सरल तरीके पर नाथपंथ ने जोर दिया।  कृपया साधकों ने हर दिन जो सही लगे वो प्राणायाम सिर्फ 20 मिनट रोजाना लगातार कुछ महीनों तक करना चाहिए। मन के स्थिर और निर्विचार होने के लिए छह महीने की अवधि अपेक्षित है। इस दौरान मन बेचैन और चंचल अवस्था में रहेगा। सात्विक आहार करना चाहिए। सभी प्रकार के डर, चिंताओं को छोड़ देना चाहिए। परमेश्वर की प्राप्ति में जीवन  व्यतीत हो रहा है ऐसी धारणा बनाए रखें। यम,  नियम आदि राजयोग की प्राथमिक सीढ़ियां उपरोक्त कृती में अंतर्भूत है ऐसा मानना चाहिए।



यदि मन ऐसी भूमिका में स्थिरता का अनुभव कर रहा है, तो ध्यान का अध्ययन चरणों में किया जाना चाहिए। इस ध्यान के लिए प्रातःकाल का समय बहुत उपयुक्त है।


महत्वपूर्ण नोट -

गुरुमुख द्वारा ज्ञात किए गए तीन ध्यानों में से पहली ध्यान क्रिया का प्रपंच  कर रहे है। यद्यपि कृपया पाठकों और साधकों ने सिर्फ आत्मोद्धार के हेतु द्वारा ही इस क्रिया का पालन करना चाहिए। अगर आपके कोई प्रश्न हैं, तो हमसे सीधे संपर्क करें।


ध्यान के तरीके और धारणाएँ -

सुबह जल्दी उठकर सचैल स्नान करके शुचिर्भूतके हो जाएं। आदत के अनुसार, चाय में कॉफी ले ने में कोई हर्ज नहीं है। उसके बाद, फिरसे आने बिस्तर पर दीवार को सटकर बैठिये। अपनी आंखों को बंद करिए और अपनी सांसों को स्थिर रखिए। फिर ऐसा प्रबलता के साथ सोचना के, आपका शरीर चिता पर भस्मसात हुआ है और आप अपने शरीर के ढाँचे को अपनी आँखों से देख रहे हैं।  इस स्थिति में है कि ऐसा लगता है की जैसे कि आपके शरीर में बंधा हुआ आपका चैतन्य , अब मुक्त हो गया है। इस संसार की आशा, माया मोह, द्रव्य कि लालसा, स्त्रीसुख आदि सारे देहान्तर्गत शरीर के नाश के साथ ही उपरोक्त क्षणिक  भाव नष्ट होकर ऐसे भावातीत और विश्व का भान नहीं रखने वाला चैतन्य मैं हूँ, ऐसा सोचना चाहिए।

इस शरीर के कारण ही मुझसे  अनेकों अंतहीन यातना, अपमान, गरीबी, बीमारी और लालच जुड़े हुए थे।  मेरे परिवार के लिए, रिश्तेदारों के लिए,बच्चों की खुशी और सुख के लिए कितनी यातनाएँ सही,  वह शरीर अब भस्म हो गया है। मैं अब जो  चैतन्यरूप हुँ जिसकी दृष्टिसे जगत और जीवन कुछ भी नहीं है। जो भी है वह सिर्फ चैतन्य.....! ध्यान इस स्वरूप का होना चाहिए। ऐसी सोच में बिल्कुल बदलाव न करें।

इस प्रकार एकप्रवाही ध्यान करना चाहिए। मन में आने वाले अन्य विचार शरीर के अंतर्गत हैं। मेरा कोई शरीर ही नहीं है तो विचार कहाँ के......? । इस तरह के ज्ञान के निर्माण के साथ, अन्य विचार समाप्त हो जाते हैं और  ध्यान की परिपक्व अवस्था में शरीर भस्म हो गया है यह  भावना भी धूमिल हो जाती है।चैतन्य  के स्थान पर अन्य  कुछ नहीं है  यह अनुभूति होती है और मेरी आशा निरंजन रूप है यह पहचान कर साधक धन्य हो जाता है।

यह साधना अशुभ या भयानक है यह मानने का कोईभी कारण नही है क्योंकि शरीर का चैतन्य के साथ संबंध होना ही अपनेआप में अशुभ बात है। हमारा  चैतन्यका अनुभव करना कोई भयानक बात नहीं है, बल्कि यह खुशी और मांगल्य की स्थिति है ऐसा समझना चाहिए। यदि आप 8 से 15 दिनों तक इस तरह से ध्यान लगाते हैं, तो आप को जो दैवीय अनुभव होंगें और मन को जो शांति मिलेगी, उसका वर्णन न करते हुए उस अवस्था में जाकर खुद उसका अनुभव लीजिए, इतना ही कहना है।

शुरुआत में आपको औसतन 20 मिनट ध्यान करना चाहिए। ध्यान की अवस्था से बाहर आते समय (आँखें खोलने से पहले)।  सांसों की गति पर लक्षकेन्द्रित करना चाहिए। दोनों हथेलियों में रगड़कर उत्पन्न ऊर्जा को दोनों हथेलियों से आँखों पर स्पर्श करना चाहिए और धीरे-धीरे आँखों को खोलना चाहिए।

संपर्क : श्री. कुलदीप निकम 
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भ्रमणध्वनी : +91 9619011227 
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