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हर चन्द्रमास में दो चतुर्थियाँ आती हैं। एक शुक्ल पक्ष की, दूसरी कृष्ण पक्ष की। इन दोनों में संकष्टी चतुर्थी का स्थान विशेष है। यह केवल एक तिथि नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि और संकटों से मुक्ति का गूढ़ योगिक अवसर है। इस दिन गणपति का पूजन केवल बाह्य कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि भीतर के अवरोधों मन के संकटन, भय और असमंजस ; के नाश का सूक्ष्म प्रयोग होता है।
🔶 संकष्टी चतुर्थी का आंतरिक अर्थ
‘संकष्टी’ शब्द का अर्थ है। “संकटों से मुक्ति देने वाली।” जब मनुष्य सांसारिक जीवन की उलझनों में फँसकर अपने ही भय और कर्मजाल में जकड़ जाता है, तब यह व्रत आत्मा को पुनः केंद्रित करने का एक साधन बनता है। गणपति ‘विघ्नहर्ता’ हैं ; जो बाहरी विघ्नों से अधिक हमारे अंतःकरण में उत्पन्न भ्रमों और संशयों को दूर करते हैं।
वास्तव में, हर संकष्टी चतुर्थी पर उपवास का अर्थ शरीर को तपा देना नहीं, बल्कि इंद्रिय संयम के माध्यम से मन को शुद्ध करना है। सूर्य से लेकर चन्द्र तक उपवास करने का गूढ़ तात्पर्य यह है कि जब तक चन्द्र (मन का प्रतीक) उदित न हो, तब तक साधक अपने चित्त को नियंत्रित रखे। यह योग की वह अवस्था है जहाँ मन का अधिपति (चन्द्र) शांत होकर गणपति के चरणों में स्थिर होता है।
🌿 व्रत की रहस्यमय साधना
इस दिन केवल फलों और भूमि में उगने वाली जड़ों का सेवन करने का विधान है ; यह प्रतीक है कि साधक प्रकृति के मूल तत्वों से जुड़ रहा है। धरती में छिपी जड़ें ‘आधार शक्ति’ का प्रतीक हैं, जो हमें हमारी मूलाधार चेतना से जोड़ती हैं। गणपति स्वयं मूलाधार चक्र के अधिपति हैं। जब साधक इस चक्र को शुद्ध करता है, तब जीवन की स्थिरता, सुरक्षा और आत्मविश्वास का संचार होता है।
🕉️ गणपति के दो रहस्यमय गुण – ज्ञान और संपत्ति
- आगामी संकष्टी चतुर्थी पर गणेश के दो गुण प्रमुख रूप से जाग्रत किए जाते हैं – ज्ञान और संपत्ति।
- ज्ञान यहाँ केवल शास्त्रीय नहीं, बल्कि अंतरदृष्टि का प्रकाश है — जिससे साधक अपनी दिशा पहचानता है।
- संपत्ति केवल धन नहीं, बल्कि आत्मिक सम्पन्नता है — जो व्यक्ति को भीतर से पूर्ण करती है।
जो व्यक्ति संकष्टी चतुर्थी के दिन गणपति का सच्चे भाव से पूजन करता है, वह भीतर की अज्ञानता और अभाव से मुक्त होकर संतुलन की अवस्था प्राप्त करता है।
🌺 पूजन विधि का सूक्ष्म रहस्य
गणपति को 11 दूर्वा की गांठ अर्पित करने का विधान अत्यंत गूढ़ है। दूर्वा एक ऐसी वनस्पति है जो कठिनतम परिस्थितियों में भी जीवित रहती है ; यह स्थिरता और धैर्य का प्रतीक है। जब साधक गणपति को दूर्वा चढ़ाता है, तब वह यह संकल्प लेता है कि कठिन समय में भी अपनी साधना को नहीं छोड़ेगा। इसके पश्चात् “ॐ श्रीं गं सौभाग्यदायिने गणपतये स्वाहा” इस मंत्र का 108 बार जप किया जाता है।
- “ॐ” – ब्रह्म की ध्वनि,
- “श्रीं” – लक्ष्मी तत्त्व,
- “गं” – गणपति का बीज,
- “सौभाग्यदायिने” – समृद्धि देने वाले,
- “स्वाहा” – समर्पण का प्रतीक।
इस मंत्र के माध्यम से साधक अपने भीतर की दैवी चेतना को सक्रिय करता है।
🌕 चन्द्र दर्शन और संकटों से मुक्ति
संध्या के समय चन्द्र दर्शन इस व्रत का चरम बिंदु है। चन्द्र मन का प्रतीक है ; जब गणपति के ध्यान के पश्चात् साधक चन्द्र को निहारता है, तब उसका मन शुद्ध होकर विघ्नों से मुक्त होता है। इस क्षण साधक के भीतर गहरी शांति और समाधान की अनुभूति होती है।
🕊️ गूढ़ फल – आत्मिक और सांसारिक संतुलन
संकष्टी चतुर्थी केवल सांसारिक सुख, स्वास्थ्य या विवाद निवारण के लिए नहीं, बल्कि अंतरात्मा की स्थिरता के लिए भी है। जो व्यक्ति इस व्रत को भावपूर्वक करता है, उसमें एक अद्भुत परिवर्तन देखा जाता है
- मानसिक स्पष्टता बढ़ती है,
- निर्णय शक्ति प्रबल होती है,
- और जीवन के छिपे संकट सहजता से मिट जाते हैं।
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